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संपादकीयः किसान आंदोलन, तानाशाही और हम…

पुलकित शर्मा

सुबह का अखबार हो या दिनभर टेलीविजन पर चलने वाली खबरें। इन दिनों एक ही चीज सुर्खियों में है और वह है किसान आंदोलन। टीवी चैनल हर दिन इस पर डिबेट करते हैं। चार लोग जमा किए जाते हैं, इधर-उधर की बातें होती है। कुछ चिल्ला-चोट मचती है, टीआरपी थोड़ी इंक्रीज की जाती है और फिर बिना किसी सार्थक बहस के अगले दिन फिर से मिलेंगे कि बात के साथ डिबेट का अंत कर दिया जाता है।

अखबार की हैडलाइंस कुछ ऐसी बनती है ‘दिल्ली की सीमा पर अभी भी जमे हैं किसान, भाजपा अध्यक्ष के घर पर हुई हाईलेवल बैठक।’ इन सबके बीच गृहमंत्री निकाय चुनाव में अपनी पार्टी की हवा बनाने के लिए हैदराबाद का दौरा करते हैं। वहां महालक्ष्मी का पूजन करते हैं, रोड शो करते हैं। विपक्षियों पर आरोप लगाते हैं और फिर वापस आ जाते हैं और एक बयान जारी कर अपने कर्म की इतिश्री मान लेते हैं।

वैक्सीन का प्रोडक्शन देखने और देव दिवाली मनाने में व्यस्त पीएम

प्रधानमंत्री साहब, कोरोना वैक्सीन के निर्माण को देखने के लिए देश के तीन बड़े शहरों अहमदाबाद, हैदराबाद और पुणे का दौरा करते हैं। इसके बाद देव दीवाली मनाने के लिए वाराणसी पहुंचते हैं, जो उनका संसदीय क्षेत्र भी है। यहां वे क्रूज पर बैठकर शाम को अमिताभ बच्चन की आवाज में लाइट एंड साउंड शो के साथ लेजर शो का आनंद लेते हैं। इससे पहले दिन में 6 सड़क परियोजनाओं का उद्घाटन करते हैं। गुरुनानक जयंती के उपलक्ष पर भाषण देते हैं, साथ ही विपक्षियों को कोसते नजर आते हैं।

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इस पूरे प्रकरण में प्रधानमंत्री ने एक बार भी पहल करते हुए किसानों को किसी प्रकार का कोई आश्वासन देने का काम नहीं किया। हां, उन्होंने एक काम जरूर किया और वह यह था कि हम किसी की सुनेंगे नहीं। चाहे वह किसान हो या आम आदमी…विपक्ष की तो हम वैसे भी नहीं सुनते। यह आंदोलन कोई दो-चार दिन पहले तो शुरू हुआ नहीं था, कि सरकार को इसकी खबर ही नहीं थी। मामला मॉनसून सत्र में बिना किसी बहस और चर्चा के सत्ता के नशे में चूर भाजपा सरकार द्वारा अपने संख्या बल पर संसद में पास कराए गए तीन कृषि बिलों से शुरू हुआ था। इस बिल का विरोध राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए से 22 सालों से जुड़े शिरोमणि अकाली दल ने भी किया था। विरोध स्वरूप शिरोमणि अकाली दल की सांसद और कैबिनेट मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने इस्तीफा भी दिया। साथ ही, पार्टी ने एनडीए छोड़ने की भी घोषणा कर दी।

इतना सबकुछ हो जाने पर भी सत्ता का नशा मोदी सरकार पर इतना अधिक हावी रहा कि उन्होंने अपने वर्षों पुराने मित्र दल को जाने से नहीं रोका। इसे तानाशाही ना कहें तो और क्या कहे कि सत्ता पक्ष का विरोध करने वालों को राष्ट्रद्रोही कहा जाता है और हां में हां मिलाने वाले को देशभक्त की संज्ञा दी जाती है। प्रधानमंत्री और उनके गृहमंत्री ने पूरे आंदोलन को कांग्रेस की चाल बता दिया। उनका साथ कंगना रनौत जैसे उन सेलेब्रिटीज ने भी दिया, जिन्हें भाजपा सरकार का संरक्षण प्राप्त है। गृहमंत्री किसानों के सामने शर्तें रखते नजर आ रहे हैं कि अगर वे एक जगह एकत्र हो जाएं तो उनसे बात की जाएगी।

बात करने का दिखावा ना करे सरकार

सवाल ये है कि अगर आपको बात करनी है तो कीजिए ना, बात करने का दिखावा मत कीजिए। शर्त रखने की स्थिति में आप नहीं हैं, क्योंकि किसान गलत नहीं आप गलत हैं। एक ओर तो नरेंद्र मोदी, अमित शाह जैसे बड़े नाम किसानों को लेकर बड़ी बड़ी बातें करते दिखाई दे रहे थे। वे ही अब उनसे बात करने या उनकी समस्या सुनने तक को तैयार नहीं हैं। जनता द्वारा इतना बड़ा बहुमत दिए जाने के कारण सरकार पूरी तरह मगरूर हो चुकी है। उन्हें लगता है कि वे भारत भाग्य विधाता हैं, लेकिन असल भारत भाग्य विधाता तो किसान है, जो सर्दी, गर्मी और बरसात ही नहीं, हाड़ कंपाती सर्दी में भी फसल उगाता है।

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सरकार ने कृषि संबंधी जो तीन कानून बनाए हैं वह किसानों को आगे बढ़ाते कम 70 साल से ज्यादा पीछे फेंकने का काम करते ज्यादा नजर आएंगे। एक ओर जहां सरकार ने इन कानूनों के जरिए आलू-प्याज जैसी सब्जियों के भंडारण के आदेश दे दिए हैं। वहीं, सरकारी मंडियों में तो कर लागू है, लेकिन प्राइवेट मंडियों को टैक्स फ्री कर दिया गया है। इससे एमएसपी खत्म होना लाजिमी है। कान कैसे भी पकड़ा जाए, पकड़ा कान ही जाएगा।

सरकारी मंडियों का खत्म करना कमियों को दूर करना कैसे

सरकार कहती है कि देश में मंडियों की कमी है। यह बिलकुल सही कि देश में मंडियों की कमी है। वर्तमान में देश में 42 हजार मंडियों की जरूरत है, जबकि हैं सिर्फ 7 हजार मंडियां। ऐसे में सरकार को मंडिया बढ़ाने का काम करना चाहिए था ना कि रही सही सरकारी मंडियों को भी बंद करने का अप्रत्यक्ष तौर पर कदम उठाना चाहिए था।

सरकार ने तर्क दिया कि सरकारी मंडियों में कमियां हैं। इन कमियों को दूर करने का सरकार ने बहुत अच्छा उपाय ढूंढ़ निकाला और वह है मंडियों को बंद कर देना। यानी ना रहे बांस ना बजे बांसुरी। कमियां सभी में होती है, उस कमी को दूर करने का तरीका यह कभी नहीं हो सकता कि उस चीज को बिलकुल खत्म कर दिया जाए। अगर सभी कुछ प्राइवेट हाथों में दे दिया जाएगा तो क्या सबकुछ सही हो जाएगा।

कॉरपोरेट खरीदारों को खुली छूट वह भी बिना पंजीयन और बिना किसी कानून के दायरे में लाने वाले कानून कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) से इन कॉरपोरेट की ही मर्जी चलेगी। इससे दो लोग सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, पहला किसान और दूसरा आम जनता। किसानों के विरोध पर हर बार सरकार ने एक ही जुमला दिया कि एमएसपी खत्म नहीं की जा रही है। यह सभी को पता है कि सरकार प्रत्यक्ष तौर पर एमएसपी खत्म नहीं करने जा रही है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि अप्रत्यक्ष तौर पर सरकार के यह कानून एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को खत्म करने की दिशा में उठाए गए कदम है।

आंदोलनकारी किसानों से पुलिस का ऐसा बर्ताव क्यों ?

किसानों के आंदोलन की बात की जाए तो गृह मंत्रालय के निर्देशों पर चलने वाली दिल्ली पुलिस आंदोलनकारी किसानों से ऐसा बर्ताव कर रही है, जैसे वे नक्सलवादी हों। हाईवे पर जेसीबी मशीनों के जरिए सड़कें खोदकर खंदक बना दी गईं, जिससे किसान दिल्ली की सीमा के पास नहीं पहुंच सके। दिल्ली पुलिस ने तीन स्तरीय व्यूह बनाया, इन किसानों को रोकने के लिए। पहले कंटीले तार लगाए, इसके बाद ट्रकों को आड़ा खड़े करते हुए बेरिकेड्स का रूप दिया गया और इसके बाद खंदक खोद दी गई। रही सही कसर पुलिस ने आंसू गैस और वॉटर कैनन द्वारा पूरी कर दी।

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बदनाम करने की चाल या है कुछ सच

बावजूद इसके अन्नदाता नहीं रूका तो इन्हें बदनाम करने का भी काम किया गया। इस काम का जिम्मा हरियाणा सरकार को सौंपा गया (यहां भी भाजपाशासित सरकार है)। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने बयान दिया कि किसान आंदोलन में खालिस्तान समर्थित लोग भी हैं। आंदोलन में प्रधानमंत्री के विरोध में नारे लगाए जा रहे थे। कई लोग कह रहे थे कि अगर वे इंदिरा गांधी के साथ ऐसा कर सकते हैं तो प्रधानमंत्री के साथ भी कर सकते हैं। रिपोर्ट पुख्ता होते ही इसकी जानकारी दी जाएगी।

सवाल यह है कि अगर आपको वीडियो आदि के जरिए यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रधानमंत्री के लिए ऐसा कुछ कहा जा रहा है तो जल्द से जल्द ऐसे असामाजिक तत्वों की पहचान कर उन्हें गिरफ्तार किया जाए। अगर ऐसा कुछ नहीं निकलता है तो अपने बयान पर अफसोस जताते हुए ना सिर्फ पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए। अगर हो सके तो राजनीति को ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि सिर्फ अन्नदाता को बदनाम करने के लिए ऐसा कहना केवल निंदनीय ही नहीं, अक्षमीय है।

कंगना की फालतू बकवास, कई सितारे आंदोलन के पक्ष में

अब बात करते हैं इन्हें दिए जाने वाले समर्थन की तो इन किसानों को दिलजीत दोसांझ, सोनू सूद, जसबीर जस्सी, स्वरा भास्कर जैसे कुछ सेलेब्रिटीज का ही समर्थन प्राप्त है। बड़े सितारों जैसे अमिताभ बच्चन, आमिर खान जो अन्य मामलों में तो बढ़-चढ़कर ट्वीट करते रहते हैं। लेकिन जब बात सरकार के खिलाफ बोलने की आती है तो कछुए की तरह अपने खोल में छिप जाते हैं। इस बार भी इन सितारों ने ऐसा ही किया है, वे इस मामले में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है।

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कारण यह कि जैसे ही इन सितारों ने सरकार के विपक्ष में बोला तो इन्हें देशद्रोही करार दे दिया जाएगा। वहीं, किसानों के विरोध में बोलने पर इन्हें ट्रोल किया जाएगा। ऐसे में ये सितारे अपनी नैतिक जिम्मेदारी को भूलकर सिर्फ अपने हितों के बारे में सोच रहे हैं। आम जनता तो पहले से ही भावशून्य है। अगर कठपुतली कहा जाए तो भी गलत नहीं होगा। कारण यह है कि चुनाव के समय धर्म, जाति और देशभक्ति के नाम पर नचाते हुए राजनेता अपना उल्लू साध लेते हैं।

हर ऐसे अहम मुद्दे पर आम जनता क्यों झाड़ लेती है पल्ला

दूसरी ओर, जब इस प्रकार के अहम मुद्दे उठते हैं तो यह कह कर आम लोग पल्ला झाड़ लेते हैं कि जब सरकार विपक्ष और अन्य लोगों की नहीं सुन रही तो हमारी क्या सुनेगी। आम जनता तब तो कैंडल लेकर सड़कों पर आ जाती है, जब किसी बेटी का बलात्कार कर उसकी निर्मम हत्या हो जाती है। माना उस समय लोगों का सड़कों पर आना सही है, जिससे कठोर कानून बने और ऐसा फिर किसी की बहन-बेटी के साथ हो, लेकिन क्या जनता की जिम्मेदारी किसान आंदोलन जैसे अहम मुद्दे पर कुछ नहीं है।

क्या अन्नदाता की आवाज को उठाना किसी बेटी के बलात्कार और उसकी निर्मम हत्या के सामने अहमियत नहीं रखता। क्या अन्नदाता सिर्फ खुद के लिए ही आवाज उठा रहे हैं। भले ही प्रत्यक्ष तौर पर किसान अपने लिए आवाज उठा रहे हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष तौर पर उससे प्रभावित हर खास ओ आम होगा। अगर मंडियों का प्राइवेटाइजेशन बिना किसी लगाम के कर दिया गया तो किसानों को तो घाटा होगा ही, इसका खामियाजा हर भारतीय को उठाना पड़ेगा। आलू-प्याज तो अभी से महंगे हो चुके हैं। आने वाले समय में हर एक सब्जी के दाम आम जनता की पहुंच से भी दूर हो जाएंगे।

क्या हिंसक आंदोलनकारियों की ही आवाज सुनेगी सरकार

कई बार ऐसा भी प्रतीत होता है कि सरकार तभी आवाज सुनती है या एक्शन लेती है, जब प्रदर्शन हिंसक हो। राजस्थान में गुर्जर समाज जब प्रदर्शन करता है और राजमार्ग जाम करता है। पटरियों को उखाड़ देता है तो सरकार मांगों पर गौर करने के लिए तैयार होती है और मांगें मान भी ली जाती है। क्या शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे किसानों को भी इसी प्रकार का रुख अख्तियार करना चाहिए, जिससे सरकार तक उनकी आवाज पहुंचे। शहीद ए आजम भगत सिंह ने एक बार कहा था हुकूमत बहरी है और इन्हें अपनी आवाज सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत है।

जरूरी नहीं है कि यह धमाके बम के जरिए ही किए जाएं, अगर किसानों के इस आंदोलन में आमजन भी किसी ना किसी प्रकार अपना सहयोग दे तो यह भी किसी धमाके से कम नहीं होगा। जनता को अपनी ताकत को कम नहीं आंकना चाहिए। जनता वह शक्ति है, जो किसी भी सरकार को बनाने और गिराने का काम करती है। जनता को यह समझना जरूरी है कि सरकारें उनसे हैं ना कि वे सरकारों से हैं।

अमेरिका, ताईवान जैसे देश के लोग अपने हक के लिए सड़कों पर उतरने से नहीं हिचकते, उन्हें पता है कि अगर वे आज सड़कों पर नहीं उतरें तो उनका भविष्य अंधकार में चला जाएगा। देश की जनता को भी यह समझना होगा और सड़कों पर उतर कर देश के अन्नदाता के इस आंदोलन में अपना भी सहयोग देना होगा। वरना सरकारें मनमर्जी चलाती रहेंगी और पिसना सिर्फ आमजन को पड़ेगा।

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