दुष्कर्मियों के लिए कड़े कानून जरूरी तो पीड़ितों का आत्मविश्वास बढ़ाना समाज का कर्तव्य | Support for Rape Victims
बेटी अगर पिता के साथ सुरक्षित नहीं है तो कोई उसकी सुरक्षा नहीं कर सकता है। यह टिप्पणी हर व्यक्ति को अंदर से झकझोर सकती है। हिसार के फास्ट ट्रैक कोर्ट ने दुष्कर्मी पिता (Rapist Father) को फांसी की सजा सुनाते हुए यह टिप्पणी की थी। पिता ने 12 साल की अपनी बेटी को अपनी हैवानियत का शिकार बनाया था।
ऐसा नहीं है कि यह इस प्रकार का अकेला मामला है, जो सामने आया हो। देश में कई ऐसे मामले अब तक सामने आ चुके हैं, जिसमें पिता ने बेटी से या भाई ने बहन से या किसी अन्य रिश्तेदार ने दुष्कर्म किया हो। यह मामला इसलिए खास है, क्योंकि इसमें कोर्ट ने दोषी को फांसी की सजा सुनाई है, जिसका वह व्यक्ति हकदार है। इससे कम सजा ऐसे लोगों को मिलनी भी नहीं चाहिए, जो अपनी ही बेटी को अपनी हवस का शिकार बना डालते हैं।
लेकिन, उन आरोपियों को क्या सजा मिलनी चाहिए, जो किसी युवती या महिला के साथ इसी तरह का काम करते हैं। उन्हें सिर्फ 5-10 साल की सजा मिलती है। इसमें से भी कुछ साल तो ट्रायल के नाम पर ही बीत जाते हैं।
सवाल असली ये है कि एक पिता-भाई ने बेटी-बहन से दुष्कर्म किया तो उसे फांसी की सजा, लेकिन बाहरी व्यक्ति करे तो कम सजा। क्या ये सही इंसाफ है उस पीड़ित से? पूरे हादसे में सिर्फ उस महिला या लड़की का जिस्म ही छलनी नहीं होता, बल्कि आत्मा तक छलनी हो जाती है।
ये ऐसा घाव रहता है, जिसे वह चाहकर भी कभी भूल नहीं पाती है। वह लड़की हर किसी को बस शक की नजर से ही देखती है। वह किसी पर भी विश्वास करने से डरने लगती है। उसके घरवालों को उसकी चिंता पहले के मुकाबले और ज्यादा होने लगती है।
माना कि घर के व्यक्ति द्वारा ऐसा घृणित कृत्य करना उस लड़की की नींव तक हिला देता है और उसका दुख भी उससे कहीं ज्यादा होता है, जिसमें वह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लूटी जाती। फिर भी सिर्फ इसी आधार पर दुष्कर्मी को कम सजा देना गलत है।
कुछ समय पहले एक खबर अखबारों में पढ़ने और टीवी पर देखने को मिली थी, जिसमें चार साल की मासूम की दुष्कर्म के बाद हत्या कर दी गई थी। क्या ऐसे व्यक्ति को जीने का अधिकार है? जिसने अपनी एक मासूम को अपनी हवस का शिकार बना डाला था। अपनी हैवानियत छिपाने के लिए फिर उस बच्ची की हत्या भी कर दी।
क्या उस व्यक्ति का अपराध जघन्य से भी जघन्य नहीं माना जा सकता है? क्योंकि उसने तो एक मासूम के सारे सपने, मासूमियत, मुस्कान सब उससे कुछ क्षणों में उससे छीन ली। क्या वह व्यक्ति फांसी का हकदार नहीं है, जो पड़ोसी होने का फायदा उठाकर बच्ची से उसका बचपन छीन लेता है? अगर वह व्यक्ति फांसी का हकदार नहीं है तो फिर कोई भी व्यक्ति ऐसे कृत्यों में फांसी का हकदार नहीं हो सकता है। चाहे वह पिता हो या भाई, क्योंकि भावनाओं में बहना है तो पूरी तरह बहना जरूरी है, अन्यथा बिना भावनाओं में बहे निर्णय होना चाहिए।
ये सही है कि फास्ट ट्रैक कोर्ट (Fast Track Court) का फैसला आने वाले समय में एक नजीर बन सकता है, लेकिन सभी के लिए यह समझना जरूरी है कि दो साल, पांच साल या 7 साल की मासूम से दुष्कर्म करने वाले के लिए फांसी ही एकमात्र सजा होनी चाहिए। वह आरोपी या दोषी इससे कम की सजा के लायक नहीं है। वहीं, दुष्कर्म पीड़ित के प्रति समाज का रवैया भी बदलने की जरूरत है, क्योंकि कई बार ऐसे लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर कई बातें सुननी पड़ती है।
Social Support for Rape Victims
दुष्कर्म किसी के साथ भी हो सकता है, तो इससे मुंह बनाने की बजाय ऐसी पीड़ितों को अपनाने और उनका आत्मविश्वास बढ़ाना हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है। न्यायपालिका भले ही आरोपियों को कड़ी से कड़ी सजा दे दे, लेकिन पीड़ितों को संभालना, उन्हें फिर से सामान्य जीवन जीने में मदद करना और आत्मविश्वास को बढ़ाना यह समाज और हमें ही करना होगा। वरना कड़ी सजाओं का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। उम्मीद है हिसार कोर्ट का फैसला एक नजीर बने और हमारे देश में मासूमों से दुष्कर्म करने से पहले कोई भी व्यक्ति हजार बार सोचे।
Article By- पुलकित शर्मा (Pulakit Sharma) (लेखक के पास पत्रकारिता में 14 साल से अधिक का कार्य अनुभव है और विभिन्न प्रसिद्ध समाचार पत्रों और मीडिया हाउस के साथ रिपोर्टर, लेखक और संपादक के रूप में काम किया है।)
DISCLAIMER: ये लेखक की निजी राय हैं।
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