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SHRADDHA AND NIRBHAYA CASE: क्या ऐसे जघन्य अपराधों को रोकने में मौजूदा कानून वाकई कारगर है?

निर्भया-श्रद्धा कांड रोकने के लिए अब बनाए जाने चाहिए कठोर कानून 

Shraddha and Nirbhaya Case – How to stop such heinous crime

छह महीने पहले दिल्ली में एक युवती की हत्या का राज कुछ ही दिन पहले फाश हुआ है, जिस दिन हत्यारे लिव इन पार्टनर (Live-In Partner) को पुलिस ने गिरफ्तार किया। उस दिन टीवी, अखबार और लोगों की जुबान सिर्फ दो ही नाम छाए थे। पहला था हत्या के आरोपी आफताब पूनावाला (Aaftab Poonawala) और दूसरा था श्रद्धा वालकर (Shraddha Walkar Murder Case) का। दो दिन इस पर खूब डिबेट हुई, खबरें छपीं और बातें हुईं, उसके बाद सब की यादों में चीजें धुंधली होती जा रही है। वह दिन भी आएगा, जब 2012 के निर्भया कांड (Nirbhaya Case) की तरह यह कांड भी यादों में ही रह जाएगा।

Shradha and Nirbhaya Case - How to stop such heinous crime
निर्भया-श्रद्धा कांड रोकने के लिए अब बनाए जाने चाहिए कठोर कानून 
Shradha and Nirbhaya Case – How to stop such heinous crime

ऐसा क्यों, ये सवाल आपके दिमाग में कौंधता हो या नहीं, ये मैं नहीं जानता, लेकिन ये सवाल मेरे दिमाग में हमेशा कौंधता है कि लोग तब तक ही उस घटना को याद रखते हैं, जब तक या तो वह उन पर या उनके किसी जानकार-रिश्तेदार पर ना बीती हो। या तभी तक लोग उसे याद रख पाते हैं, जब तक वह टीवी की टीआरपी और अखबार मालिकों की नजर में सुर्खियों का विषय रहे।

वर्तमान दौर में न्यूज पेपर्स सिर्फ मालिकों के हाथ की कठपूतली बन कर रह गए हैं। मालिक के हिसाब से ही रिपोर्टर को समाचार लिखना पड़ता है और संपादकीय विभाग की टीम को ठीक उसी प्रकार से संपादन का काम करना पड़ता है। अब अखबार के लोग जर्नलिज्म कम पीपीटीज्म ज्यादा कर रहे हैं।

पीपीटीज्म के बारे में बता दूं कि हर खबर को उस तरह से सजाना, जिससे उसका बढ़िया-सा पावरपॉइंट प्रजेंटेशन (PPT) बन सके। अन्यथा मालिक को पसंद आएगा नहीं और वह आपको चाय में गिरी मक्खी की तरह निकालकर थैंकयू वेरी मच कह देगा। अब समाचार पत्र के मालिक सिर्फ जर्नलिज्म करने वाले व्यक्ति को बताते हैं कि लोगों को क्या पसंद है और क्या नहीं। जैसे लोग रोज सुबह जनता दरबार में उनके पास आकर बताते हैं कि साहब, आपके अखबार में हमें ऐसी खबरें चाहिए और ऐसी नहीं।

आप सोच रहे होंगे कि मैंने समाचार पत्र और उसके ढर्रे के बारे में तो कसीदे पढ़ दिए, लेकिन टीवी के बारे में कुछ नहीं कहा तो आपको शायद यह याद नहीं रहा होगा कि टीवी की दुनिया तो चलती ही टीआरपी (TRP) से है। जिस चैनल में जितने ज्यादा डिबेट में कलेश होंगे, उसकी टीआरपी उतनी बढ़िया रहेगी और उसे विज्ञापन भी उतने ज्यादा मिलेंगे। ऐसे में टीवी के लिए ज्यादा कहना बेहतर नहीं रहता। जैसे शराब स्वास्थ्य के लिए भले ही हानिकारक होती है, लेकिन दुकानदार की कमाई शराब बेचकर ही होगी, ज्ञान देकर नहीं। वैसे ही टीवी की कमाई टीआरपी से होगी, यानी कलेश दिखाकर, ज्ञान बखानने से नहीं।

टॉपिक पर फिर से आ जाएं तो ज्यादा बेहतर रहेगा। दिल्ली के महरौली इलाके के जंगल से पुलिस को कई हडि्डयां मिली हैं, जिनमें से एक रीढ़ की हड्‌डी भी है। अब पुलिस फॉरेंसिक जांच से पता लगाएगी कि यह श्रद्धा की ही है या नहीं।  मजे की बात यह है कि हत्यारे आफताब ने श्रद्धा की हत्या की, फिर लाश के 35 टुकड़े किए। फ्रीज खरीदा, जिसमें उन टुकड़ों को संभाल कर रख दिया। लाश को काटते समय जब थक गया तो बियर पी और सो गया। इस पूरे घटनाक्रम में उस व्यक्ति की मानसिकता सामने आ जाती है, जो खुद का धर्म मानवता बताता है (सोशल मीडिया अकाउंट पर)।

किसी भी धर्म को मानने वाला व्यक्ति इतनी नृशंसता से अगर किसी के टुकड़े करता है तो इससे सिर्फ एक ही चीज साफ होती है कि वह व्यक्ति बहुत ज्यादा नृशंस है, क्योंकि आफताब उसी फ्रीज से 18 दिन तक पानी निकाल कर पीता रहा, जिसमें उसने श्रद्धा की बॉडी के टुकड़े रखे थे। मैं नहीं जानता कि उसे क्या सजा मिलेगी और कितने दिन में मिलेगी, लेकिन लोगों को जागना होगा, उन्हें यह सोचना और अपने जेहन में बैठाना होगा कि क्या उन्हें इस देश में आफताब जैसे लोग चाहिए या श्रद्धा जैसे।

श्रद्धा और निर्भया कांड

हम निर्भया जैसी नृशंसता की बात तो करते हैं, लेकिन कभी ये मांग नहीं करते सरकार से कि ऐसे अपराध करने वाले लोगों के लिए सख्त से सख्त कानून बनाया जाए। मानवाधिकारों की बात तभी अच्छी लगती है, जब समाज में मानवीय काम हो रहे हों और निर्भया-श्रद्धा जैसे कांड साफ बताते हैं कि हमारे समाज में सबकुछ सही नहीं चल रहा है। इसे सही चलाने के लिए हमें यानी जनता को ही आगे आना होगा, क्योंकि सरकारें सिर्फ वोट बैंक की राजनीति करेगी और कोर्ट हर बात का स्वत: संज्ञान लेता नहीं फिरेगा।

हमेें अपने जन प्रतिनिधियों से सवाल करना होगा कि क्या हमारी बेटियां ऐसे ही डर के साये में जीती रहेंगी? कब तक इंसाफ के लिए सालों साल इंतजार करना पड़ेगा। कब तक विकृत मानसिकता के लोग बेखौफ ऐसे अपराध करते रहेंगे? जब तक इस देश में ऐसे अपराधों के लिए कठोर कानून नहीं बन जाता, तब तक ये खेल शायद ऐसे ही चलता रहे। उम्मीद यही है कि केंद्र और राज्यों की सरकारें अब जागें और ऐसे कृत्यों (श्रद्धा और निर्भया कांड) पर राजनीति से ऊपर उठकर कठोर कानून बनाने की पहल करें।

Article By- पुलकित शर्मा  (Pulakit Sharma) (लेखक के पास पत्रकारिता में 14 साल से अधिक का कार्य अनुभव है और विभिन्न प्रसिद्ध समाचार पत्रों और मीडिया हाउस के साथ रिपोर्टर, लेखक और संपादक के रूप में काम किया है।) 
DISCLAIMER: ये लेखक की निजी राय हैं। 

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